कुछ परिंदों को केवल दो चार दाने चाहिए, कुछ को लेकिन आसमानों के खज़ाने चाहिए. मोर्चा सम्भालना जीवित छात्र होने की अनिवार्य शर्त है . ‘अपना मोर्चा’ को लेकर काशी नाथ सिंह ने एक अद्भुत यात्रा पर खुद को रखते हुए सम्पूर्ण विश्विद्यालयी आयाम को रेखांकित किया है. विश्वविद्यालय में राजनीतिक माहौल , छात्रों के बीच चुनावी सरगमी और प्रशासन की बर्बरता को लेकर ‘ज्वान’ के इर्दगिर्द बनी कहानी लेखक के साथ साथ चलती है . लेखक जो छात्रों के कलेजे की बात को समझता तो है पर कुछ कर नही सकता चूंकि वह प्रोफ़ेसर है। वह ज्वान के नेतृत्व के गुण का कायल रहता है . ज्वान दरअसल काशी हिंदू विश्विद्यालय के बेहद प्रभावशाली छात्र नेता ‘वेदव्रत मजूमदार जी ‘ का नाम था . लेखक को वह डॉक्टर बुलाते थे…. छात्रों के चौराहे पर गुटबंदी में बात करने से लेकर छात्राओं की वस्तु स्थिति के वर्णन तक पूरे उपन्यास में सीन बिखरे हैं. जैसे कई कई जगह के संवाद इतने लाजवाब हैं कि क्या कहें .
अब लेखक और ज्वान के बीच की बात है “मुझे ज्वान याद आते हैं। उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि डॉक्टर ! माना कि तुम भी आदमी हो मैं भी आदमी हूँ । अगर तुम्हारी डिग्रियों या सात सौ रुपयों से निकाल कर तुम्हे बाहर कर दिया जाए तो कौन बीस पड़ेगा ? तुम तो दो कौड़ी के हो जाओगे और मैं ? फिर देखो कि मैं अपने तीस रुपये महावर से निकल कर क्या कर गुजरता हूं । ” ज्वान छात्रों को व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी तरफ और सक्रिय युवा छात्र राजनीति में शामिल करा लेते थे। पूरा उपन्यास उनके कसे हुए संवाद और दृष्टव्य होते सीन से भरा पड़ा है। अब एक जगह सीन है …. अक्सर होता क्या है कि छात्राएं लड़ाई, मोर्चा या लड़को की सभाओं या ये कहें कि राजनीति से दूर रहती हैं ( बिल्कुल आज की तरह) ऐसे में ज्वान के पास गजब का तर्क है . एक सीन है … एक लड़की चित्र बना रही होती है ,ये वह समय है जब प्रशासन और छात्रों में गोला बारूद का सम्बंध है. ज्वान पूछते हैं ‘ये लड़की क्या कर रही है ‘ ‘तस्वीर बना रही है ‘ लेखक ने कहा। “वह एक ऐसी लड़की की तस्वीर क्यों नहीं बनाती जो आहों-कराहों के बीच लाशों के ढेर पर बैठी हो और आंखों में काजल लगा रही हो?” “आखिर हद हैं ये लड़कियां भी । लेकिन गड़बड़ी की जड़ ये नही हम हैं । आखिर हम परेशान क्यो रहते हैं इनके पीछे? हम क्यो नही मान लेते कि ये भी हमारे जैसी ही सामान्य और टकीयल हैं? ये भी खाती हैं और हमसे कम नही खाती हैं . फर्क सिर्फ इतना है कि खाने से पहले और खाने से बाद ये नखरे करती हैं और हम नहीं करते . हम इनके लिए भी लड़ते हैं और ये उसकी जरूरत नहीं समझतीं . ऐसा ज्वान ने तब सोचा जब लड़कियों का पढ़ना भी गवारा नही था ।
मूलतः कहानी एक वृतांत लगती है (शायद है भी) जो छात्रों के नेतृत्व के से लेकर प्रशासन की बर्बरता तक को दिखाती है । छात्र शुरू में बिखरे होते हैं तो टूट जाते हैं । और अंत मे जब एकजुट हो कर बात करते हैं तो आंसू गैस के गोलों को भी हवा में ही रोक लेते हैं। जीत छात्रों की होनी थी । हुई भी । खास क्या है ? सबसे खास यह है कि लेखक का समकालीन समय आपके सामने नाच जाएगा । जैसे लिखा है कि “जाड़े की शुरूआत से पहले ही जाड़े की आहट महिला महाविद्यालय से आने लगती है । जाड़ा वहाँ की लड़कियों की उंगलियों पर आता है । उनकी उंगलियों में सलाई है और वेनिटी बैग में ऊन का गोला । वे सड़क ,कक्षा , हॉस्टल, बाजार हर जगह उंगलियां चला रही .” आज के समय मे यह पढ़ना उस कालखंड के लोगों की दिनचर्या से रू ब रु कराता है. ये लेखन की ऊंचाई है. चूंकि हम आप इसे अपने परिवेश से तुलना करके देखेंगे. मैं वर्तमान का MMV देख रहा हूँ . लिखा है , सिरहाने या मेज पर ‘फिल्मफेयर’ , ‘धर्मयुग’ , ‘स्टार एंड स्टाइल’ अथवा ‘हंस’ रखी हुई है । ये बताता है कि उसेक समय पत्रिकाओं का दौर था. भले ही फिल्मी हो. ये सारी बातें ही अपना मोर्चा को नया आयाम देती हैं. समूची किताब अपने आप मे एक नई तरह की ऊर्जा लिए हुए है. पढ़ते पढ़ते अपने आप मुठ्ठियाँ भींच जाती हैं . स्वतः ही आंखे लाल हो जाती हैं . सधी हुई भाषाशैली और भावप्रधानता इस उपन्यास का प्राप्तांक है । हरेक सक्रिय छात्र को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिये.
अब लेखक और ज्वान के बीच की बात है “मुझे ज्वान याद आते हैं। उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि डॉक्टर ! माना कि तुम भी आदमी हो मैं भी आदमी हूँ । अगर तुम्हारी डिग्रियों या सात सौ रुपयों से निकाल कर तुम्हे बाहर कर दिया जाए तो कौन बीस पड़ेगा ? तुम तो दो कौड़ी के हो जाओगे और मैं ? फिर देखो कि मैं अपने तीस रुपये महावर से निकल कर क्या कर गुजरता हूं । ” ज्वान छात्रों को व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी तरफ और सक्रिय युवा छात्र राजनीति में शामिल करा लेते थे। पूरा उपन्यास उनके कसे हुए संवाद और दृष्टव्य होते सीन से भरा पड़ा है। अब एक जगह सीन है …. अक्सर होता क्या है कि छात्राएं लड़ाई, मोर्चा या लड़को की सभाओं या ये कहें कि राजनीति से दूर रहती हैं ( बिल्कुल आज की तरह) ऐसे में ज्वान के पास गजब का तर्क है . एक सीन है … एक लड़की चित्र बना रही होती है ,ये वह समय है जब प्रशासन और छात्रों में गोला बारूद का सम्बंध है. ज्वान पूछते हैं ‘ये लड़की क्या कर रही है ‘ ‘तस्वीर बना रही है ‘ लेखक ने कहा। “वह एक ऐसी लड़की की तस्वीर क्यों नहीं बनाती जो आहों-कराहों के बीच लाशों के ढेर पर बैठी हो और आंखों में काजल लगा रही हो?” “आखिर हद हैं ये लड़कियां भी । लेकिन गड़बड़ी की जड़ ये नही हम हैं । आखिर हम परेशान क्यो रहते हैं इनके पीछे? हम क्यो नही मान लेते कि ये भी हमारे जैसी ही सामान्य और टकीयल हैं? ये भी खाती हैं और हमसे कम नही खाती हैं . फर्क सिर्फ इतना है कि खाने से पहले और खाने से बाद ये नखरे करती हैं और हम नहीं करते . हम इनके लिए भी लड़ते हैं और ये उसकी जरूरत नहीं समझतीं . ऐसा ज्वान ने तब सोचा जब लड़कियों का पढ़ना भी गवारा नही था ।
मूलतः कहानी एक वृतांत लगती है (शायद है भी) जो छात्रों के नेतृत्व के से लेकर प्रशासन की बर्बरता तक को दिखाती है । छात्र शुरू में बिखरे होते हैं तो टूट जाते हैं । और अंत मे जब एकजुट हो कर बात करते हैं तो आंसू गैस के गोलों को भी हवा में ही रोक लेते हैं। जीत छात्रों की होनी थी । हुई भी । खास क्या है ? सबसे खास यह है कि लेखक का समकालीन समय आपके सामने नाच जाएगा । जैसे लिखा है कि “जाड़े की शुरूआत से पहले ही जाड़े की आहट महिला महाविद्यालय से आने लगती है । जाड़ा वहाँ की लड़कियों की उंगलियों पर आता है । उनकी उंगलियों में सलाई है और वेनिटी बैग में ऊन का गोला । वे सड़क ,कक्षा , हॉस्टल, बाजार हर जगह उंगलियां चला रही .” आज के समय मे यह पढ़ना उस कालखंड के लोगों की दिनचर्या से रू ब रु कराता है. ये लेखन की ऊंचाई है. चूंकि हम आप इसे अपने परिवेश से तुलना करके देखेंगे. मैं वर्तमान का MMV देख रहा हूँ . लिखा है , सिरहाने या मेज पर ‘फिल्मफेयर’ , ‘धर्मयुग’ , ‘स्टार एंड स्टाइल’ अथवा ‘हंस’ रखी हुई है । ये बताता है कि उसेक समय पत्रिकाओं का दौर था. भले ही फिल्मी हो. ये सारी बातें ही अपना मोर्चा को नया आयाम देती हैं. समूची किताब अपने आप मे एक नई तरह की ऊर्जा लिए हुए है. पढ़ते पढ़ते अपने आप मुठ्ठियाँ भींच जाती हैं . स्वतः ही आंखे लाल हो जाती हैं . सधी हुई भाषाशैली और भावप्रधानता इस उपन्यास का प्राप्तांक है । हरेक सक्रिय छात्र को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिये.